पितरों की शांति के लिए हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल को पितरों के लिए निर्धारित किया गया हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दौरान पितर, पितृलोक से पृथ्वीलोक पर अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण करने आते है। श्राद्ध के माध्यम से पितरों के तृप्ति के लिए कौए को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार मान्यता है कि पितृपक्ष में कौए को भोजन खिलाने से पितरों को तृप्ति मिलती है। पितृपक्ष के पूर्णिम श्राद्ध के साथ पूर्वजों की पूजा- अर्चना की जाती है। "गयाजी" में जाकर श्राद्धार्थी भाद्रपद पूर्णिमा को पहला तर्पण व पिंडदान करते हैं। इस समयावधि में श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान करने से पितृ प्रसन्न होते हैं।
सनातन धर्मग्रंथो के अनुसार पितृपक्ष के 16 दिनों में लोग अपने पितरों को जल अर्पण करते हैं तथा उनकी मृत्यु की तिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध कर्म द्वारा ही चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास में किसी भी तिथि को स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पूर्णिमा पर देहांत होने वाले व्यक्तियों के लिए भाद्रपद, शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को ही श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का आरंभ भी माना जाता है। इस सृष्टि में केवल प्राणियों का ही नहीं अपितु समस्त जड़-चेतन, जीव- जगत, चर - अचर इत्यादि हर चीज का जोड़ा है। अर्थात् युगल रूप है। जैसे दिन- रात ,अमीर- गरीब, श्याम- श्वेत,अंधकार -प्रकाश नर- नारी ,वैसे ही दृश्य और दृश्य , लोक तथा परलोक। यह सभी अपने जोड़े से सार्थक होते हैं और एक दूसरे के पूरक भी हैं। एक दूसरे पर अपनी सार्थकता के लिए निर्भर भी रहते हैं। इसी तरह दृश्य लोक या दृश्य जगत वह है जो हमें दिखाई देता है और अदृश्य जगत वह है जो हमें दिखाई नहीं देता है। परंतु एक दूसरे की निर्भरता तथा पूरकता को हम मिथ्या नहीं कह सकते हैं। पितृलोक उसी अदृश्य जगत का एक हिस्सा है जो अपनी सक्रियता के लिए दृश्य जगत के श्राद्ध कर्म पर निर्भर है। पितृपक्ष में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र- पौत्रादि हमें पिंडदान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृ लोक से पृथ्वी लोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्मशास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है ।
"पिता धर्मः,पिता स्वर्ग,:पिताहि परमम् तपः। पितरी प्रीतिमापन्ने प्रियंते सर्व देवता ।।
सर्व तीर्थ मयी माता सर्व देव मय: पिता।
मातरं पितरं तस्मात सर्व यत्नेन पूजयेत्।। "
इसलिए पितृपक्ष में पिंड क्रिया तथा ब्राह्मण भोजन के द्वारा श्राद्ध करके अपने गृहस्थ धर्म का पालन अवश्य करना चाहिए। मनुस्मृति में बताया गया है कि श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मणों में हमारे पितर गुप्तरूप से प्राण वायु की भांति उनके साथ भोजन करते हैं ।अर्थात मृत्यु के पश्चात पितर सूक्ष्म शरीर धारी हो गए हैं और दिखाई नहीं देते हैं वह पितृपक्ष में पृथ्वी पर आकर उन ब्राह्मणों के रूप में अथवा कौओं के रूप में श्राद्ध को ग्रहण करते हैं।
🔴 डॉ. सुनीता त्रिपाठी "जागृति"
नई दिल्ली
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