" श्राद्ध प्राचीन भारतीय संस्कृति का अंग है। श्राद्ध यानी श्रद्धा से किया गया कार्य। पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। "
श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है। आइए श्राद्ध और तर्पण से जुड़ी महत्वपूर्ण बिंदुओं पर एक नजर डालते है....!
2- श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन परोसते समय दोनों हाथों से पकड़ना चाहिए। एक हाथ से लाये गए व पात्र से भरोसे हुए भोजन राक्षसों द्वारा छीन कर ग्रहण कर लिये जाते हैं।
3- श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मणों को मौन रहकर भोजन करायें क्योंकि मौन भोजन ही पितर स्वीकार करते हैं।
4- जो पितृ किसी शस्त्र से मृत्यु को प्राप्त हुए हो उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्थी को भी करना चाहिए। जिससे उनको तृप्ति एवं प्रसन्नता होती है।
5- श्राद्ध में पिंडदान हमेशा गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान करते हुए यदि नीच या दुष्ट मनुष्य द्वारा दृष्टिपात किया गया होता है तो वह पिंडदान पितरों तक नहीं पहुंचता।
6- श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन परम आवश्यक होता है। जो व्यक्ति ब्राह्मण भोजन नहीं कराता पीतर उनका श्राद्ध ग्रहण नहीं करते और श्राप देकर लौट जाते हैं।
7- श्राद्ध करने जौ, मटर, सरसों, कंगनी( मोटा अनाज)तिल और कुश का उपयोग उचित और श्रेष्ठ होता है क्योंकि तिल से श्राद्ध अक्षय हो जाता है।वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करता है तथा कुश राक्षसों से बचाता है।
8- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। (अर्थात जो लोग किराए की मकान में रहते हैं वहां श्राद्ध कर नहीं कर सकते) वन ,पर्वत, पुण्य -तीर्थ एवं मंदिर आदि दूसरे की भूमि नहीं मानी जाती क्योंकि इनपर किसी व्यक्ति का स्वामित्व नहीं होता है। इसीलिए इन्हीं स्थानों पर श्राद्ध किया जाना श्रेयस्कर है।
9- श्राद्ध में एक ही नगर में मौजूद होने पर बहन, जमाई और भांजे को भोजन अवश्य करना चाहिए क्योंकि जो ऐसा नहीं करता उनका श्राद्ध पितृ के साथ देवता भी स्वीकार नहीं करते।
10- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आजाए तो उसे भी आदर पूर्वक भोजन करवाना चाहिए।जो व्यक्ति श्राद्ध के समय घरपर आएभिखारी को भगा देता है उनका श्राद्धकर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल हमेशा के लिए नष्ट हो जाता है।
11- श्राद्ध कर्म तथा ब्राह्मण भोजन रात्रि को नहीं कराना चाहिए क्योंकि रात्रि को निशाचर का समय माना गया है एवं ब्रह्म मुहूर्त तथा गोधूलि बेला (दोनों संध्या का समय है) में भी नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें प्रहर में दिया गया दान अक्षय होता है।
12- यदि आपके पितृ के मुख्य तिथि वाले दिनआपका या परिजन का जन्मदिवस हो अथवा उस दिन संयुक्त तिथि हो तो श्राद्ध कर्म उसदिन नहीं करना चाहिए। अमावस्या यानी पितृ विसर्जन वाले दिन करना चाहिए।
13- केले के पत्ते पर श्राद्ध का भोजन सर्वथा निषेध है।सोने, चांदी, तांबे, पीतल, कांसे के पात्र उत्तम है,किंतु इनके अभाव में प पत्तलों का उपयोग करना चाहिए। लोहे का पात्र वर्जित है। 14- श्राद्ध में गंगाजल, दूध, शहद,कुश,तिल,इत्र तथा तुलसी का होना महत्वपूर्ण है। तुलसी पत्र से पित्रगण प्रसन्न होते हैं। धार्मिक मान्यता है कि पित्रगण गरुड़ वाहन पर सवार होकर विष्णुलोक यानी बैकुंठ चले जाते हैं और तुलसी से पिंड की पूजा करने से पीतर लोग प्रलयकाल तक यानी युगों- युगों तक संतुष्ट रहते हैं।
15- श्राद्ध का भोजन करते समय आसन के रूप में रेशमी,ऊनी, कंबल, लकड़ी,पत्र तथा तृण (कुश)आदि के आसान ही श्रेष्ठ होते हैं।आसान में किसी प्रकार से लोहा का उपयोग अनुचित है(जैसे कुर्सी मेज)।
16- श्राद्ध भोजन में चना, मसूर, उड़द, सत्तू, मूली, काला जीरा, खीरा,कचनार, काला उड़द ,काला नमक,लौकी, सरसों, राई,सरसों के पत्ते का साग और अपवित्र भोजन व फल या बासीभोजन इत्यादि सर्वदा निषेध है।
17- दूध ,दही ,घी तथा शहद के साथ अन्न से बने हुए पकवान पितरों की पसंद का भोजन है। इसलिए खीर इत्यादि का भोजनश्राद्ध में ब्राह्मणों को खिलाना चाहिए।
18- ब्राह्मणों के लिए तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते ,कौवे, देवता तथा चींटी के लिए थोड़ा सा भाग पहले ही निकाले। उसके बाद हाथ में जल, अक्षत ,चंदन, पुष्प तथा तिल लेकर ब्राह्मण से संकल्प लें। कौवे तथा कुत्ते के निमित्त निकाले गए भाग को कुत्ते और कौवे को पहले खिला दे। देवताओं और चींटियों के लिए निकाले गए भाग को गाय को खिला दे।तत्पश्चात ही ब्राह्मणों को भोजन करायें। पूरी तृप्ति तक भोजन करने के बाद यथाशक्ति अन्न और वस्त्र आदि के साथ दक्षिणा देकर आशीर्वाद प्राप्त करें।
19- ब्राह्मणों के भोजन करने के बाद घर के बाहर तक पूरे सम्मान के साथ विदा करें।ब्राह्मणों के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों, रिश्तेदारों तथा पड़ोसियों को भोजन करायें।
20- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। कई पुत्र होने पर ज्येष्ठ पुत्र ही श्राद्ध कर्म करें ।जेष्ठपुत्र के नहीं होने की दशा में सबसे छोटा करे। पुत्र के नहीं रहने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।पत्नी के भी नहीं रहने पर सहोदर भाई (सगा भाई )करें। उसके भी नहीं रहने पर सपिंड में से कोई भी श्राद्ध कर्म करें, लेकिन सपिंड के द्वारा श्राद्ध कर्म अवश्य ही करना चाहिए।
🔴 तर्पण- श्राद्ध पक्ष में तर्पण ,नित्य करने का विधान है। तिल, दूध, पुष्प, कुश तथा गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु पूरी श्रद्धा के साथ अर्पण किया जाता है। भोजन व पिंडदान- पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है ।श्राद्ध करते समय चावल या जौ का पिंडदान भी किया जाता है।
🔴वस्त्र दान- वस्त्र दान करना श्राद्ध का मुख्य अंग है क्योंकि यह मान्यता है कि दान युगों- युगों तक संचित रहता है।
🔴दक्षिणा दान- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा हैं। जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दिया जाता यज्ञ का समुचित फल प्राप्त नहीं होता है।
इस प्रकार श्रद्धा से जो कुछ भी पितरों के लिए दिया जाए वही श्राद्ध, पुण्य फलदाई होता है। मन में किसी भी प्रकार का ईर्ष्या- द्वेष, कपट,अथवा न कर पाने का पछतावा नहीं होना चाहिए। अधिक करने का घमंड भी नहीं करना चाहिए। हर प्राणी अपने सामर्थ्य के अनुसार करता है तभी तो कहा गया है 'यथाशक्ति तथा भक्ति'।सबसे महत्वपूर्ण चीज है श्रद्धा का भाव । पितरों का आदर के साथ तर्पण,अर्पण और ब्राह्मण भोजन प्रदान कर श्राद्ध करें।
🔵 डॉ. सुनीता त्रिपाठी"जागृति"
नई दिल्ली
No comments:
Post a Comment