36 घंटे का निर्जला जीवित्पुत्रिका व्रत का है धार्मिक महत्व
🔴 युगान्धर टाइम्स व्यूरो
कुशीनगर ।जनपद के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों मे जीवित्पुत्रिका के अवसर पर महिलाओं ने अपने पुत्रो के दीर्घ आयु, आरोग्य और सुखमय जीवन के लिए निर्जला उपवास रहकर विधिवत पूजा-अर्चना की। अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका मनाया जाता है। इसे जिउतिया व्रत भी कहा जाता है। संतान की लंबी आयु बेहतर स्वास्थ्य और सुखमयी जीवन के लिए इस दिन माताएं व्रत रखती हैं। तीज की तरह यह व्रत भी बिना आहार और निर्जला रखा जाता है।
व्रती महिलाओं ने जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, चावल, पुष्प आदि अर्पित किया। इसके साथ ही मिट्टी व गाय के गोबर से चील एवं सियारिन की प्रतिमा बनायी व माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया। पूजन समाप्त होने के बाद पुरोहितों से व्रतियों ने जिउतिया व्रत की कथा सुनी। श्री चित्रगुप्त मंदिर के पीठाधीश्वर महर्षि अजयदास महाराज बताते हे कि संतानों की लंबी आयु, आरोग्य तथा कल्याण की कामना को लेकर माताएं इस व्रत को करती हैं। कहते हैं कि जो महिलाएं पूरे विधि-विधान से निष्ठापूर्वक कथा सुनकर गरीबों को दान-दक्षिणा व पशु-पक्षियों को भोजन खिलाती हैं, उन्हें पुत्र सुख व समृद्धि प्राप्त होती है। छठ पर्व की तरह जितिया व्रत पर भी नहाय-खाय की परंपरा होती है. यह पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है. सप्तमी तिथि को नहाय-खाय के बाद अष्टमी तिथि को महिलाएं बच्चों की समृद्धि और उन्नत के लिए निर्जला व्रत रखती हैं. इसके बाद नवमी तिथि यानी अगले दिन शनिवार को व्रत का पारण किया जायेगा।
जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा महाभारत काल से जुडी है। शास्त्रों के अनुसार अश्वत्थामा ने बदले की भावना से अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ मे पल रहे पुत्र को मारने के लिए ब्रम्हास्त्र का प्रयोग किया था। तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसके गर्भ में पल रहे बच्चे को पुन: जीवित कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से जीवित होने वाले इस बच्चे को जीवित्पुत्रिका नाम दिया गया। बाद मे वह बालक राजा परीक्षित के नाम से विश्व-विख्यात हुआ तभी से संतान की लंबी उम्र और मंगल कामना के लिए हर साल जितिया व्रत रखने की परंपरा को निभाया जाता है।
🔴 जीवित्पुत्रिका व्रत की पूजन विधि
अगर आप जीवित्पुत्रिका व्रत रखने वाली माताए द्वारा सुबह स्नान करने के बाद प्रदोष काल में गाय के गोबर से पूजा स्थल को लीपकर साफ-सुथरा कर वहा एक छोटा सा तालाब बनायी इसके बाद उस तालाब के पास एक पाकड़ की डाल खड़ी कर शालिवाहन राजा के पुत्र धर्मात्मा जीमूतवाहन की कुशनिर्मित मूर्ति जल के पात्र में स्थापित किया। तत्पश्चात उन्हें दीप, धूप, अक्षत, रोली अर्पित करने के बाद उन्हे भोग लगायी। इसके बाद मिट्टी या गाय की गोबर से मादा चील और मादा सियार की प्रतिमा बनाकरदोनों को लाल सिंदूर चढाकर पुत्र की प्रगति और कुशलता की कामना की गयी। इसके बाद व्रती महिलाओ ने कथा सुनी।
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