🔴 ना जोगिया, ना चौताल गुम हो गयी पुरानी परंपरा
🔴 डीजे के दौर मे दब गयी फगुआ की मिठास
🔴 संजय चाणक्य
कुशीनगर । वह एक समय था जब गांव के गलियारों से लेकर शहर के चौक-चौराहों तक ढोल-मजीरे के साथ फगुआ के गीत गाए जाते थे। किन्तु अफसोस शहरो की बात तो दूर गांवों मे भी यह परंपरा अतीत बनती जा रही हे। ग्रामीण इलाकों मे एकाघ मंडली है जो आधुनिकता की दौर मे इस परंपरा को जीवित रखने के लिए जद्दोजहद कर रही है लेकिन आज की युवा पीढ़ी बदलते दौर मे डीजे की धुन पर थिरकते हुए पूर्वजों के इस धरोहर को भुलते जा रहे है।
बेशक। होली खेलें रघुबीरा अवध में, आज बिरज में होली रे रसिया जैसे चईता फाग अब बीते दिनों की बात हो गई। गांवों में अब ढोल मजीरे तक की आवाज नहीं सुनाई देती। गंवई परंपराओं पर आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। इनका स्थान होली के फाग गीतों की जगह भोजपुरी के अश्लील भरे गीतों ने ले लिया है। कुछ गांवों में जैसे तैसे इस परंपरा को बचाए रखने की औपचारिकता निभाई जा रही है। कहना न होगा कि हमारे देश के त्योहार, व्रत तथा परंपराएं यहां के जीवंत सभ्यता और संस्कृति का दर्पण हैं। देश की अनेकता में एकता प्रदर्शित होने के पीछे हमारी समृद्ध परंपराओं और पर्वों का योगदान है। बुजुर्गों की मानें तो गांवों में इन परंपराओं को लोग भली भांति निभाते थे। बसंत पंचमी से ही गांवों में फागुनी गीतों की बयार बहने लगती थी। फागुन के गीतों राग, मल्हार, फगुवा, झूमर, चौताल, नारदी, तितला, चैता और बारहमासा आदि के माध्यम से भारतीय लोक संस्कृति की छाप बहुतायत देखने को मिलती थी। गांवों में एक साथ बैठकर फाग गीतों के गाने से लोगों के बीच आपसी प्रेम और सौहार्द कायम रहता था। गांवों के झगड़े का निपटारा आपसी बातचीत से ही हो जाता था। लेकिन लोक कलाओं के विलुप्त होने से समाज में आपसी वैमनस्यता बढ़ गई है। पहले होली के गीतों मे समाज का सांस्कृतिक रुप दिखता था। लेकिन अब द्विअर्थी गीतो का प्रचलन लोगो के सिर चढकर बोल रहा है यही वजह है कि अश्लील गीतो के कारण होली का रंग बदरंग होता जा रहा है। पहले घर-घर घूमकर लोग होली के दिन तक फाग गाते थे। इसके बाद भी पन्द्रह दिन तक चैतावर गाकर आनंद उठाते थे, अब यह परम्परा गांवो मे भी विलुप्त हो गयी है।
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