विचारधाराओं की लडाई या लोकतंत्र का अपमान - Yugandhar Times

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Friday, February 18, 2022

विचारधाराओं की लडाई या लोकतंत्र का अपमान

🔴 व्यक्ति का निर्माण भी विचार से ही होता है, विचार की लड़ाई लड़कर ही व्यक्तियों ने इतिहास में अपना नाम भी दर्ज करवाया है।विचार ही है जो व्यक्ति व समाज को आईना दिखाता है और यह विचार ही है, जो किसी समाज, संगठन व व्यक्ति को खड़ा करता है या उसे रसातल में ले जाता है।

🔴 बृजबिहारी त्रिपाठी

व्यक्ति के रूप में महात्मा गांधी एक स्थूल काया के रूप में थे और जब विचार बनकर समाज के सामने आए, तब उन्हें 'राष्ट्रपिता' भी लोग कहने लगे। कहना जरूर चाहूंगा कि यही विचारधारा है जो राष्ट्र, समाज व व्यक्ति की दिशाएं निर्धारित करती है और निर्माण और विनाश भी करती है। यह जरूर कहना चाहूंगा कि विचारधाराएं भिन्न होती हैं इसलिए मतांतर मान्य है, लेकिन किसी भी विचार को इसलिए खारिज व दरकिनार कर देना कि वो अपने खुद के विचारों से मेल नहीं खाता, लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है।

चर्चा करना चाहूंगा कि अगर कोई व्यक्ति या संगठन किसी भी विचार को इसलिए सिरे से खारिज व दरकिनार करता है कि वो विचार उसके स्वयं के विचार से मेल नहीं खाता तो ऐसे व्यक्ति को हम फासिस्ट या तानाशाह कह सकते हैं। भारतीय राजनीतिक पटल पर कुछ ऐसी ही वैचारिक लड़ाई वर्तमान में देखने को मिल रही है। केंद्र में सत्ता में जबसे नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार आई है, तबसे यह देखने को मिल रहा है कि वैचारिक लड़ाई खुलेआम नजर आने लगी है। मुझे वह दिन याद है, जब आम चुनावों के समय राहुल गांधी ने कहा था कि यह पार्टियों की नहीं, जबकि विचारों की लड़ाई है और भारतीय लोकतंत्र ने कांग्रेस के विचारधारा को एकदम से नकार दिया था। 

कहना जरूर चाहूंगा कि हमे यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस के विचारधारा को देश ने पिछले कई दशकों तक अपने सिर पर बैठाकर रखा था।

हम वर्तमान भारतीय राजनीति के परिदृश्य को जब देखते है तो विचारधारा व मूल राजनीति के बीच काफी द्वंद की स्थिति देखने को मिलता है। राजनीति के मुख्य पहलू लोकतांत्रिक के बजाए व्यक्ति व विचारधाराओ के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। नरेन्द्र मोदी एक उदार चेहरा नहीं हैं और इसके साथ ही अपने से विपरीत विचारों को मानने वाले व्यक्तित्व भी नहीं हैं, यह हम नही कह रहे है जबकि उन्होंने अपने कार्यों और आदेशों से साबित किया है। केंद्र सरकार ने आजादी के बाद पहली बार एक ऐसा आदेश निकाला कि पूर्व प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति सहित केंद्र के पूर्व स्वर्गीय मंत्रियों की पुण्यतिथि व जयंती अब सरकारी स्तर पर नहीं, बल्कि उनके पारिवारिक स्तर पर मनाई जाएगी, कोई भी सरकारी व्यक्ति इसमें हिस्सा नहीं लेगा। यह इस मानसिकता का जीता-जागता उदाहरण है। इसी कारण इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चाहकर भी शक्तिस्थल पर नहीं जा सके। आदेश से यह बात समझ में आती है कि वर्तमान में जिस विचारधारा के लोग सत्ता में हैं, वे लोग अपने से विपरीत विचारधारा वाले व्यक्तियों की समाधि पर जाकर पुष्पांजलि व श्रद्धांजलि अर्पित करने के सामान्य शिष्टाचार में भी विश्वास नहीं रखते। 

कहना जरूर चाहूंगा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के पूर्व प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के लिए इस तरह के आदेश क्या तत्कालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था के अपमान व धज्जियां उड़ाने जैसा नहीं है..? आखिर क्या वे देश के प्रधानमंत्री बिना जनादेश के बने थे या तत्कालीन जनता का दिमाग खराब था..? ऐसा कुछ नही था बात यह है कि आजादी के बाद पहली बार गैर कांग्रेसी विचारधारा पूर्ण बहूमत के साथ सत्ता में आई है और अब इनके पास अपनी विचारधारा को थोपने का पूरा मौका है। ये लोग ऐसे पूरे प्रयास कर रहे हैं, चाहे ऐसे प्रयासों से किसी का अनादर भी क्यों न होता हो। हम यदि देखे तो यह साफ हो जाता है कि निश्चित ही ऐसे आदेश लोकतांत्रिक शिष्टाचार तो हर्गिज नहीं कहे जा सकते हैं। दूसरा उदाहरण तब देखने को मिला, जब नरेन्द्र मोदी हाल ही में अपनी बांग्लादेश की यात्रा पर गए। वहां से अटल बिहारी वाजपेयी को बांग्लादेश की आजादी का सम्मान दिलवाकर ले आए। भारत के प्रधानमंत्री ने बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई का जोर शोर से जिक्र किया, लेकिन जिस लौह महिला कही जाने वालीं इंदिरा गांधी के कारण ऐसा संभव हो पाया था, उसका जिक्र तक न करके एक बार फिर साबित कर दिया कि जैसे वे इंदिरा की समाधि पर जाकर श्रद्धांजलि अर्पित नहीं कर सकते, वैसे ही वे बांग्लादेश के निर्माण का सेहरा भी इंदिरा के सिर बंधा हुआ देख नहीं सकते। मोदी ने उस संघर्ष में बांग्लादेश का साथ निभाने के लिए तत्कालीन समय में इंदिरा गांधी को शक्ति, दुर्गा व मां कहने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की प्रशंसा की और सम्मानित करवाकर भी लाए। 

चर्चा करना जरूर चाहूंगा कि पूरी दुनिया यह जानती है कि उस समय वो प्रयास इंदिरा गांधी की महत्वाकांक्षा व मजबूत इच्छाशक्ति के बिना किसी भी रूप में संभव नहीं हो सकता था। ऐसा ही कुछ 21 जून को देखने को मिलेगा, जब पूरा देश योग दिवस मनाएगा। ये वो विचारधारा वाले लोग हैं, जो शांतिवन, शक्तिस्थल, वीरभूमि पर जाकर सिर नहीं झुका सकते, परंतु केशव, बलिराम, हेडगेवार की पुण्यतिथि को योग दिवस के रूप में मनाकर पूरे देश को इस बात के लिए बाध्य जरूर कर सकते हैं कि 21 जून का दिन याद करें। मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं योग का विरोधी नहीं हूं सिर्फ यह कि जो दिन तय किया गया है, इसके पीछे का जो विचार है उसको यहां साफ करने की कोशिश कर रहा हूँ। 2 अक्टूबर की छुट्‌टी को निरस्त करने वाली सरकार 21 जून का महत्व बढ़ाना चाहती है। पूरे देश को योग करवाने के लिए किसी और दिन का भी निर्धारण किया जा सकता था, परंतु 21 जून का दिन इसलिए चुना गया, क्योंकि जिस विचारधारा से नरेन्द्र मोदी निकलकर आते हैं उस विचारधारा के सर्वोच्च व्यक्ति उस दिन स्वर्ग सिधारे थे। यहाँ तो यह साफ हो जाता है कि इस तरह एक ही परिवार और विचार को स्थापित करने का जो आरोप बरसों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के लोग कांग्रेस पर लगा रहे हैं, कुछ वैसा ही काम वर्तमान सरकार भी खुद कर रही है। एक ही व्यक्ति के पीछे चलना और एक ही विचारधारा को पूरे राष्ट्र पर थोपना यह लोकतंत्र का अपमान नही है।वाल्टेयर का कथन है कि 'हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं, पर विचार प्रकट करने के अपने अधिकारों की रक्षा अवश्य करूंगा।' बताना जरूर चाहूंगा कि विचारों की कद्र करना लोकतांत्रिक राष्ट्रों व सभ्य समाज की पहचान होती है, लेकिन किसी विचार से जुड़े लोगों का अपमान करना निश्चित ही पतन का कारण बनता है। हम कह सकते है कि लोकतांत्रिक होते हुए विचारो का कद्र नहीं करना लोकतंत्र का अपमान भी है।

  🔴(लेखक पत्रकार व सामाजिक चिंतक है यह इनके अपने विचार है।)


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