कुशीनगर । कभी बसपा सुप्रीमो मायावती का चरण वंदन कर सक्रिय राजनीति मे अपना पहचान बनाने वाले व अवसरवादी नेताओ मे शुमार स्वामी प्रसाद मौर्या, बेशक मौसम वैज्ञानिकों की तरह सत्ता सुख का दूरदृष्टि के अच्छे जानकार कहे जा सकते है। लेकिन इस बात से इंकार नही किया जा सकता है कि इनकी राजनीति जमीन उसड है। मार्या के राजनीति सफरनामे पर नजर दौडाये तो यह कभी हाथी की बदमस्त चालो के साथ कदमताल कर लाल बत्ती का सुख हासिल किये तो कभी खिलते कमल के पखरुखियो के सहारे अपने डूबते अस्तित्व की बेडा पार करने मे सफल हुए है। मतलब यह कि मौर्या के सिर पर जीत का चेहरा कभी बसपा के कैडर वोटरो ने बांधा तो कभी मोदी लहर ने। ऐसे मे यह सवाल उठना लाजमी है कि मौर्या का अपना जनाधार क्या है? सपा मे शामिल होने के बाद स्वामी अपने दम पर सपा को क्या लाभ पहुचा सकते है। यह तो भविष्य के गर्भ मे छिपा है लेकिन पिछड़ी जाति का बडे नेता होने का अगर उन्हे गुमान है तो उन्हें इस गफलत मे नही रहना चाहिए कि वह देश व प्रदेश के इकलौते पिछडी जाति के नेता नही है। अगर मौर्या पिछडी जाति के सबसे बडे नेता है तो फिर पीएम मोदी किस जाति से विलांग करते है? जगजाहिर है कि मोदी की अगुवाई मे दो बार लोकसभा और एक बार यूपी की विधानसभा मे भाजपा प्रचंड बहुमत से जीत दर्ज कर चुकी है।
काबिलेगोर है कि स्वामी प्रसाद मौर्य की अस्थिरता रखने की आदत उनके प्रारम्भिक राजनीतिक जीवन का हिस्सा रहा है। हलाकि जनवरी माह के दुसरे मंगलवार को मौर्या ने जिस तरह से भाजपा पर अमंगल का हथौडा मारा था वह निश्चित तौर पर भाजपा को झटका देने वाला कहा जा सकता है लेकिन इससे इसका मतलब यह नही निकाला जा सकता है कि मार्या के पार्टी छोडकर जाने के बाद भाजपा का अस्तित्व खत्म हो जायेगा, जैसाकि मौर्या सपा मे शामिल होने के बाद मीडिया के माइक पर गरज रहे है कि वह भाजपा को नेस्तनाबूद कर देगें यकीनन मौर्या का यह बडबोलापन कहा जायेगा। राजनीतिक जानकारों की माने तो सपा के बैनर तले मौर्या चुनाव लडते है तब भी उन्हे यादव और मुस्लिम बिरादरी का जो वोट उन्हे मिलेगा वह मौर्या के पिछडी जाति के होने के वजह से नही बल्कि सपा के नाम पर मिलेगा जो सपा कैडर वोट है। इसके अलावा भाजपा से नराज एंटी भाजपा वोट जो सिर्फ भाजपा हराओ के नाम पर सपा को विकल्प के रुप मे मिलेगा तो यह वोट भी मार्या के खुद के जनाधार को साबित नही करता है ऐसे मे सपा के बेस वोट एंव एंटी भाजपा वोट को अपना जनाधार मानकर स्वामी प्रसाद मौर्य भाजपा को नेस्तनाबूद करने का दावा कर रहे है तो निश्चितौर पर बडबोलापन कहा जायेगा और कुछ नही।
🔴 ये पब्लिक है यह सब जानती है
स्वामी प्रसाद मौर्य द्वारा एक झटके मे सूबे के कैबिनेट मंत्री के पद से यह कहकर इस्तीफा देना कि वह विपरीत परिस्थिति मे काम कर रहे थे किसी भी इंगल से रास नही आ रहा है। यकीन अगर स्वामी विपरीत परिस्थितियों मे काम कर रहे थे तो फिर वह चार साल ग्यारह महीने पिछडो के साथ हो रहे सौतलापन व्यवहार को धृतराष्ट्र बनकर क्यो देख रहे थे। मौर्या अगर विपरीत परिस्थितियों मे काम कर रहे थे कि तो उनकी कुलकर्णी निद्रा सत्ता के कार्यकाल पूरा होने के बाद क्यो टूटी? सच्चाई यह है कि बसपा छोडने के बाद स्वामी ने समय की नजाकत को देखते हुए भाजपा का दामन थाम मोदी लहर का पुरा लाभ उठाते हुए एतिहासिक जीत के साथ विधायक बने और लाल बत्ती का सुख-सुबिधा लेते रहे। सत्ता सुख मे वह इतना मशगूल रहे कि उन्हे पांच सालो तक पिछडे और दलितों का दर्द तनिक भी महसूस नही हुआ और विधानसभा चुनाव का अधिसूचना जारी होने के बाद लाल बत्ती का खुमार उतरते ही पिछडो के साथ हो रही जायती का एहसास होने लगा। यह कैसा दलित-पिछड़ा प्रेम है? अब देखना यह होगा कि स्वामी प्रसाद का यह दलित - पिछडा प्रेम आम मतदाता पर कितना असरदायक होगा। ऐसे मे राजेश खन्ना के फिल्म रोटी का वह सदाबहार गीत बरबस फूट पडता है " ये तो पब्लिक यह सब जानती है पब्लिक है।"
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