🔴 तेरह दिनो मे पाकिस्तान को घटना टेकने पर कर दिया मजबूर, 93 हजार पाक सैनिकों ने किया समर्पण
🔴 संजय चाणक्य
कुशीनगर ।आज से पांच दशक पूर्व भारतीय सेना के जांबाजों ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को नाकों चने चबवा दिए थे। माँ भारती के सपूतो की वीरता के सामने पाक सेना ने महज 13 दिन में ही घुटने टेक दिए थे। देश के लिए कई सैनिकों ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी। वीर सैनिकों के अदम्य साहस से भारत को अकाल्पनिक व अविस्मरणीय जीत का गौरव हासिल हुआ। इसमें कुशीनगर जिले के जांबाज भी शामिल थे। जनपद के वीर योद्धाओं ने 1971 के युद्ध में वीरता का ऐसा परिचय दिया था कि आज भी गांव-गांव में इन जवानो की गौरवशाली गाथा बंया की जाती है।
बेशक ! विजय दिवस हिन्दवासियो के लिए खास दिन है क्योंकि आज ही के दिन यानी 16 दिसंबर 1971 को भारतीय सेना ने पाकिस्तान पर जीत दर्ज की थी और पाकिस्तान के लगभग 93 हजार सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने घूमने टेक दिया था। भारत-पाक युद्ध ने पाकिस्तान के नक्शे को बदल कर रख दिया था और पूर्वी पाकिस्तान, पाकिस्तान से अलग हुआ था और एक आजाद मुल्क बांग्लादेश का जन्म हुआ था। कहना न होगा कि तत्कालीन भारतीय सेना प्रमुख फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की कुशल नेतृत्व और सोची-समझी रणनीति के बदौलत पाकिस्तान को इस युद्ध में ऐसी करारी हार मिली कि पाक के जनरल एएके नियाजी समेत ढाका स्टेडियम में करीब 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को घुटने टेकने पड़े थे। और 16 दिसंबर का दिन विजय दिवस के रूप में दर्ज हो गया। और इस विजय दिवस के साक्षी बने कुशीनगर जनपद के पडरौना शहर के आवास विकास कॉलोनी निवासी कैप्टन लालबहादुर त्रिपाठी और शहर से सटे सोहरौना निवासी कैप्टन समसुद्दीन। यह दोनो भारत-पाक युद्ध के दौरान बतौर सैनिक शामिल थे। इन दोनों पूर्व सैनिकों की माने तो पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच जंग की असली बुनियाद साल 1970 में हुए आम चुनाव में तैयार हुई थी। सत्ता को लेकर पूर्वी पाकिस्तान में बगावत शुरू हुई तो जनरल टिक्का खान की अगुवाई में पाकिस्तानी सैनिकों ने वहां के बाशिंदों पर बर्बरता की सारी हदें पार कर जुल्म ढाना शुरू कर दिया। लाखों लोगों का कत्लेआम कर दिया गया। पाकिस्तानी सैनिकों से बचने के लिए पूर्वी पाकिस्तान के लोग हिन्द के सरजमीं पर शरण लेने लगे। सीमा पर बिगड़ते हालात को देखते हुए भारत भी लोगों को शरण देने पर मजबूर हो गया। पड़ोसी मुल्क में उपजे हालात पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी चिंतित थीं, लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा था कि भारत हमेशा से शांति का समर्थक रहा है। शांति के साथ विवाद हल करने की तमाम कोशिशों के बावजूद 1971 की लड़ाई टल नहीं पाई। नवंबर का महीने आते-आते हालात इतने बिगड़ने लगे कि 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान की वायुसेना ने भारत पर हमला कर दिया। इसके जबाब मे भारत ने भी पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी।
🔴 भारत-पाक युद्ध की कहानी कुशीनगर योद्धाओं की जुबानी
कैप्टन लालबहादुर त्रिपाठी ने कहते है मैं फोर राजपूत रेजीमेंट में सूचना देने के लिए था। लड़ाई शुरू होने के बाद सेना के साथ पूर्वी पाकिस्तान के भ्रूंगामारी में हम पहुंचे और वहां से तीन दिन बाद आगे बढ़ते हुए पाचागढ़ गए। रास्ते में जितने भी पाक सैनिक मिले, उन्हें बंदी बनाते हुए हम आगे बढ़ते चले गए। महज 13 दिन की लड़ाई में भारतीय सैनिकों ने एक कुशल रणनीति के तहत पाक को घूटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया और हमने जंग जीत लिया। युद्ध का खौफनाक मंजर याद करते है कैप्टन कहते है कि लडाई के दौरान शुरुआत में एक-दो दिन तक तो डर लगा, लेकिन हमने हौसला टूटने नहीं दिया। दुश्मनों के मनोबल को रणनीति से तोड़कर हमने यह लड़ाई जीती। कैप्टन समसुद्दीन ने बताया कि 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान पर भारत की जीत, सबसे बड़ी जीत थी। इस जंग के बाद एक नए देश बांग्लादेश का उदय हुआ और तभी से विश्वभर में भारत का दबदबा बना। पूर्वी पाकिस्तान के खिलाफ रणनीति बनाकर हमारी सेना ने पाक सैनिकों के हौसला चकनाचूर कर दिया । हम और हमारी सेना ने 7 दिसंबर से जल, थल और नभ का रास्ता बंद होने की बात कहकर पाक सैनिकों को आत्म समर्पण कराया। पाक के जो सैनिक बचे भी थे तो उनमें गोली चलाने तक की हिम्मत नहीं थी। हालांकि, हमारे जवान भी शहीद हुए, लेकिन पाक को युद्ध में हराकर भारत ने ऐतिहासिक विजय प्राप्त किया।
🔴 भारत-पाक युद्ध मे शहीद हुआ था कुशीनगर का लालविजय दिवस के 50वीं वर्षगांठ कुशीनगर के सैनिकों के अदम्य साहस की कहानी के बिना अधूरी है। विजय दिवस पर यह जानना जरूरी है कि पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ति वाहिनी के विद्रोह को दबाने पहुंची, पाकिस्तानी सेना को जिस भारतीय सेना ने महज तेरह दिन में परास्त कर दिया था उसमे कुशीनगर के माँ भारती के सपूत मेघनाथ महतो ने अपने प्राणों की आहुति दी थी।
जिले के सेवरही थाना क्षेत्र के धर्मपुर पर्वत गांव निवासी शहीद मेघनाथ महतो के पुत्र प्रयागनाथ को अपने पिता का चेहरा भी याद नहीं है। प्रयागनाथ की माने तो उनके पिता ने 1965 और 1971 की लड़ाई में हिस्सा लिया था। शहीद मेघनाथ महतो की पत्नी शिवराजी देवी कहती है उनके एकलौते पुत्र प्रयागनाथ केवल दो वर्ष के थे, जब पति शहीद हुए थे। मेघनाथ दो महीने की छुट्टी लेकर घर आए थे, लेकिन 10वें दिन ही लड़ाई शुरू होने पर ड्यूटी का तार मिला। तार मिलते ही, वे युद्ध भूमि के लिए निकल पड़े थे। 14 दिसंबर 1971 को लड़ाई के दौरान वे शहीद हो गए थे।
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