आधुनिकता की दौर मे " डाकिया डाक लाया " बना सपना - Yugandhar Times

Breaking

Saturday, November 20, 2021

आधुनिकता की दौर मे " डाकिया डाक लाया " बना सपना

🔴 वह एक दौर था जब सायकिल की घंटी बजते ही सामने खाकी वर्दी, सर पे टोपी और कंधे पर लटका झोला देखकर महिला,पुरुष,युवा, युवती सभी की बाछे खिल जाती थी

🔴 संजय चाणक्य 

कुशीनगर ।  वह एक दौर था जब सायकिल की घंटी बजते ही सामने खाकी वर्दी, सर पे टोपी और कंधे पर लटका झोला देखकर महिला,पुरुष,युवा, युवती सभी की बाछे खिल जाती थी। कोई अपने बच्चे के चिट्ठी तो कोई पति - पत्नी की प्रेम पत्र पाने के उम्मीद से डाकिया की ओर टकटकी लगाए झाँकने लगते थे. हर किसी को आस रहती थी कि उनके अपनों की सलामती की खबर डाकबाबू लेकर आएंगे। लेकिन आधुनिकता की इस दौर मे डाक और डाकिया को न सिर्फ भूला दिया है बल्कि घर-घर चिट्ठी बाटने वाले डाकिया भी अतीत बन गये है। 

काबिलेगोर है कि डिजिटल दौर में डाक और डाकिया के महत्व को लोग भूलते जा रहे थे। डाक शब्द कोरियर, फैशबुक, वाट्सएप और ई-मेल में तब्दील हो गया। है। वह भी एक दौर था जब डाकबाबू (पोस्टमैन) की सभी इज्जत करते थे और उनसे सभी का लगाव होता था। डाकबाबू सभी को पहचानते भी थे. नाम से जानते थे और उनको पता होता था की किसका डाक किसके लिए और क्या खबर लेके आया होगा। उस समय बहुत लोग ऐसे होते थे जिनका पत्र लिखना और आया हुआ पत्र पढना डाकिया का काम होता था। किसका कौन सम्बन्धी कहाँ रहता है डाकिया को सब पता होता था। खाकी वर्दी सर पे टोपी कंधे पर लटका झोला और सायकिल देख लोग दूर से ही डाकिया को पहचान लेते थे। अपनो से दूर रहने वालों को भले ही चिट्ठी-पतरी अपनों से जोड़कर रखता था पर डोर तो डाकबाबू ही होते थे। आज डाकिया का अस्तित्व लगभग लुप्त हो गया है. आधुनिक तकनीकीकरण के होने से उनका महतव काम हो गया है। अब तो चिट्ठी लिखना जैसे इतिहास की बात हो गयी हो। लोग चिट्ठी लिखना भूल ही गए हैं। इसका रूप धारण कर लिया है फेसबुक, व्हाट्सएप , ई-मेल आदि ने। यह सही है कि डिजिटल दौर मे हमें प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती, हम एक दूसरे के विषय में जानने के लिए उत्कंठित नहीं होते। याद आई और बात कर लिए। बेशक! व्याकुलता तो कम हुई है लेकिन वह जो प्रतीक्षा में आनंद की अनुभूति थी वो अब कहाँ? नवविवाहिता प्रतीक्षा करती थी अपने पति के प्रेम -पत्र का, प्रातः काल से ही अनवरत प्रतीक्षारत रहती थी , डाकिया को देखते ही चेहरा प्रसन्नता से खिल उठना , चिट्ठी मिलकर उल्लसित होना फिर प्रसन्न हो कर डाकिया को उपहार स्वरुप कुछ भेंट देना और डाकिया का आशीर्वाद देना , यह सब कही न कही अतीत के गर्भ मे समाहित हो गया है।  डाकिया की वह प्रसन्नता जो नवविवाहित या नवविवाहिता को चिट्ठी देकर होती थी और उस के वजह से डाकिया के चहरे पर आई मुस्कान जो परिलक्षित होता था सब बिता हुआ काल हो चूका है। आज की पीढ़ी इन बातो से अनभिज्ञ है। "डाकिया डाक लाया '' यह बातें अब सपना हो गयी है।

🔴 यादे, जो याद आती है

पडरौना नगर के 86 वर्षीय सुदामा प्रसाद व 62 वर्षीय बलिराम यादव कहते है हम लोग बचपन में रिश्तेदारों द्वारा लिखी चिट्ठियों को महीनों तक इंतजार करते थे। डाकिया आते ही हम लोग दौड़ कर दरवाजे के पास जाया करते थे। डाकिया जैसे ही चिट्ठी हाथ में पकड़ाता, झट से लिफाफे को फाड़ कर परिवार के बीच में पढ़कर सुनाना शुरू कर देते थे। चिट्ठी पढ़ने में जो आनंद मिलता था वह आज काल या मैसेज में नहीं मिल पाता। सेवानिवृत्त 75 डाकिया मनोहर बताते है  वैसे तो हर डाक को ही समय से पहुंचाने की कोशिश रहती थी लेकिन जब बात दवाई और मनिआर्डर की होती थी तो सभी डाक छोड़कर पहले दवा और मनिआर्डर पहुंचाने के लिए दौड़ते थे।

No comments:

Post a Comment

Post Top Ad

Responsive Ads Here