🔴 योगी सरकार के जमीनी कार्य योजनाओं को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले वर्षों मे इंस्फलाइटिस नामक यह महामारी इतिहास के पन्नों मे सिमट जायेगी
🔴 संजय चाणक्य
कुशीनगर । विगत चार दशको से पूर्वाचंल के नौनिहालों के लिए मौत का पर्याय बनी रही इंसेफेलाइटिस बीमारी पर योगी सरकार ने कमोबेश नकेल कस दी है। पूर्व की सरकारों ने मासूमों पर कहर बरपाने वाली इस महामारी को मौत का सालाना जलसा मान जहां हाथ खडे कर दिए थे वही वर्ष 2017 में मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने अपने भागीरथ प्रयास के दम पर सूबे को इंसेफेलाइटिस मुक्त बनाने में लगभग नब्बे फीसदी सफलता हासिल कर ली है। बीते दो वर्षों के साथ इस साल कोरोना काल के वैश्विक बीमारी में भी, योगी सरकार के ठोस और जमीनी कार्य योजनाओं को देखते हुए यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले वर्षों मे इंस्फलाइटिस नामक यह महामारी इतिहास के पन्नों मे सिमट जायेगी।
काबिलेगोर है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में वर्ष 1978 में पहली बार दस्तक देने वाली विषाणु जनित बीमारी इंसेफेलाइटिस या दिमागी बुखार के चपेट में 2017 तक जहां 50 हज़ार से अधिक मासूम असमय काल के गाल में समा चुके थे और करीब इतने ही जीवन भर के लिए शारीरिक व मानसिक विकलांगता के शिकार हो गए। लेकिन पिछले तीन सालों में यह आंकड़े इकाई से होते हुए दहाई में जाकर सिमटते गए। इस महामारी का केंद्र बिंदु समझे जाने वाले गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज के इंसेफलाइटिस वार्ड में एक दौर वह भी था जब हृदय को भेदती चीखों के बीच एक बेड पर दो से तीन बच्चे जिन्दगी और मौत से जूझते हुए नज़र आते थे, वही यह भी एक दौर है जहां इस वार्ड के अधिकतर बेड खाली पडे रहते हैं और जिस पर बेड पर इंसेफलाइटिस के मरीज दिखते है , वह दुरुस्त इलाज के सुकून में इत्मिनान की सांस लेते हुए नजर आते है। यह सब सम्भव हुआ है इस महामारी को करीब से देखने, बतौर सांसद लोकसभा में हमेशा आवाज़ उठाने और मुख्यमंत्री बनने के बाद टॉप एजेंडा में शामिल कर इंसेफेलाइटिस उन्मूलन का संकल्पित कार्यक्रम लागू करने वाले योगी आदित्यनाथ के संवेदनशील प्रयासों से। कहना न होगा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश मे जापानी इंसेफेलाइटिस का पहला मामला वर्ष 1978 मे सामने आया था। चूंकि इंसेफेलाइटिस का वायरस नर्वस सिस्टम पर हमला करता है इसलिए जन सामान्य की भाषा में इसे मस्तिष्क ज्वर या दिमागी बुखार कहा जाने लगा। बीमारी नई थी तो कई लोग 'नवकी बीमारी' भी कहने लगे. हालांकि देहात के इलाकों में चार दशक पुरानी यह बीमारी आज भी नवकी बीमारी की पहचान रखती है. 1978 से लेकर 2016 तक मध्य जून से मध्य अक्टूबर के चार महीने गोरखपुर और बस्ती मंडल के गरीब तबके पर बहुत भारी गुजरते थे। इन्हे भय इस बात की रहती थी कि न जाने कब उनके घर के चिराग को इंसेफेलाइटिस का झोंका बुझा दे। मानसून में तो खतरा और अधिक होता था, कारण बरसात का मौसम वायरस के पनपने को मुफीद होता है। बहरहाल 2017 के बाद इंसेफेलाइटिस पर नियंत्रण के उपायों से दिमागी बुख़ार का खौफ दिल ओ दिमाग से दूर हो रहा है।
बेशक। मार्च 2017 में सूबे सरकार की कमान संभालते ही योगी आदित्यनाथ ने इंसेफेलाइटिस के उन्मूलन को अपनी शीर्ष प्राथमिकता में रखा।वर्ष 1998 में जब पहली बार लोकसभा में इंसेफेलाइटिस का मुद्दा गूंजा था तो इसकी पहल तब पहली बार सांसद बने योगी ने ही की थी।तब से 2017 में मुख्यमंत्री बनने से पहले बतौर सांसद, 19 वर्षों तक सदन के हर सत्र में उन्होंने इस महामारी पर आवाज़ बुलंद किया। पूर्वांचल के बच्चों के लिए मौत का पर्याय बनी रही इंसेफेलाइटिस पर रोकथाम के लिए तत्कालीन सत्ताधीशों की कुलकर्णी निन्द्रा तोड़ने के लिए योगी ने तपती दोपहरी में अनेक बार गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज से जिलाधिकारी और कमिश्नर दफ्तर तक पैदल मार्च कर सिस्टम के खिलाफ हल्ला बोला था।
🔴 कारगर हथियार बना दस्तक अभियान
जानकारो की मानें तो दो दशक के अपने संघर्ष में योगी आदित्यनाथ इंसेफेलाइटिस के कारण व निवारण के संबंध में गहन जानकारी रखते हैं. बीमारी को जड़ से मिटाने के अपने संकल्प को लेकर उन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं की मजबूती के साथ-साथ स्वच्छता, शुद्ध पेयजल और जागरूकता को मजबूत हथियार माना. इसी ध्येय के साथ उन्होंने अपने पहले ही कार्यकाल में संचारी रोगों पर रोकथाम के लिए 'दस्तक अभियान' का सूत्रपात किया,जिसने इंसेफेलाइटिस उन्मूलन की इबारत लिखने को स्याही उपलब्ध कराई। दस्तक अभियान में स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास, पंचायती राज, महिला एवं बाल कल्याण आदि विभागों को जोड़ा गया, आशा बहुओं, आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों, एएनएम, ग्राम प्रधान, शिक्षक स्तर पर लोगों को इंसेफेलाइटिस से बचाव के प्रति जागरूक करने की जिम्मेदारी तय की गई। साथ ही इसके गांव-गांव शुद्ध पेयजल और हर घर में शौचालय का युद्ध स्तरीय कार्य हुआ। इसके अलावा घर-घर दस्तक देकर बच्चों के टीकाकरण के लिए प्रेरित किया गया। नतीजतन पिछले तीन सालों में दस्तक अभियान के तहत टीकाकरण जहां शत प्रतिशत की ओर अग्रसर है तो वहीं ग्रामीण स्तर पर आशा बहुओं द्वारा फीवर ट्रेकिंग किये जाने , सरकारी जागरूकता और स्वच्छता संबंधी प्रयासों से इंसेफेलाइटिस के मामलों और इससे मृत्यु की रफ़्तार थम सी गई है।
🔴 कुशीनगर मे वर्ष 2017 से 2021 तक कि स्थिति
कुशीनगर जनपद मे वर्ष 2017 में इंसेफेलाइटिस के सबसे ज्यादा मरीज मिले। जिले में वर्ष 2017 में इंसेफलाइटिस के 883 मरीज मिले थे। इनमें 126 मरीजों की इलाज के दौरान मौत हो गई थी। 2018 में 307 मरीज मिले थे, जिनमें 37 की मौत हुई थी। 2019 में 284 मरीज में से 13 की मौत हुई थी। वर्ष 2020 में 298 मरीजों में 17 की मौत हो गई थी। वर्ष 2021 में अब तक 41 मरीज मिले हैं, जिनमें से दो की मौत हुई है।
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