🔴 नही रहा एहसास कहारों की हंसी ठिठोली
🔴 विलुप्त हो गई डोली
🔴 संजय चाणक्य
कुशीनगर! ‘चलो रे डोली उठाओं कहार पिया मिलन की रूत आई!’’ हिन्दी फिल्म का यह गीत आधुनिकता की इस दौड़ में सिर्फ रिल लाईफ तक सिमट कर रह गई है। कभी दूल्हे का शाही सवारी कहे जाने वाली डोली आज अतीत बन गई है। डोली,कहार और शहनाई ....!!ये ऐसे शब्द है जिन्हे सुनकर शायद ही कोई भारतीय युवक एवं युवतियां होगी जिनके मन में कोमल कल्पनायें अठखेलियां न करने लगती हो। युवक-युवती तो दूर अनेक ऐसी वृद्व महिलाएं व पुरूष भी है जो डोली,कहार के नाम सुनते ही अतीत की यादों मेें खो जाते है। और लुप्त हो रही पुरानी प्रथा को याद कर आधुनिक प्रथा को कोसन लगते है। अफसोस लग्जरी कारों के बढ़ते प्रचलन ने इस शाही सवारी को अतीत बना दिया है। यही वजह है कि कहारों की हंसी-ठिठोली के बीच डोली में हिचकोले खाती दुल्हन और दूल्हे के मन में उठने वाली मधुर गुदगुदी के आनन्द से आज के पीढी़ के लोग वंचित होते जा रहे है। फलतः अब तो उस शाही आनन्द की अनुभूति बुर्जुगो के मुंह से सुनकर या फिर हिन्दी फिल्मों में देखकर ही की जा सकती है
बेशक ! ढाई-तीन दशक पूर्व पूर्वाचंल में डोली और कहारों का महत्व शादी-विवाह के दिनों में काफी बढ़ जाता था। उस समय इनके सह लिखे जाते थे और कहार शादी के वक्त मुंहमांगा इनाम भी हासिल करते थे। दूल्हे के परछावन के समय तो डोली अपरिहार्य थी। आगे-आगे बैण्ड बाजा उसके पीछे डोली पर सवार दूल्हा और डोली के पीछे गांव की महिलाएं एवं युवतियां मधुर एवं मागलिंग गीत गाते हुऐ पीछे-पीछे चलती थी। यह सब कुछ देखकर ऐसा लगता था कि मानों कोई शहंशाह किसी मांगलिंक कृत्य के लिए निकला हो! यह डोली गांव के बाहर कही जाकर रूक जाती थी और महिलाएं अक्षत,पुष्प,रोली और चंदन लगाकर दूल्हे राजा का परछावन करती थी। वह भी जीवन का एक अनूठा अनुभव होता था। दूल्हे का साथ उसका छोटा भाई सोहबलिया बन कर बैठता था जिसकी आवाभगत भी दूल्हे से कम नही होती थी। किन्तु अफसोस अब उसी शाही रस्म को लग्जरी कार का फाठक खोल कर किसी तरह निभाया जा रहा है। इससें न तो किसी तरह की भावनायें पैदा होती है और न ही डोली में बैठकर परछावन कराने जैसा सुखद अनुभूति महसूस होती है।
🔴 मनमोहक होता था दृश्यदूल्हे की परछावन से भी मोहक दृश्य उस समय दिखाई देता था जब दुल्हन डोली में सवार होकर अपने बाबुल का घर छोड़कर पिया के घर को चलती थी। अपने बाबुल के घर से निकलते ही दुल्हन जैसे ही डोली में पांव रखती थी उसका रोते-रोते बुरा हाल हो जाता था। वह बार-बार डोली का पर्दा हटाकर अपने घर व गांव को देखती थी लेकिन ज्यों ही डोली गांव से थोड़ी दूर आगे निकलती थी कहारों की हंसी-ठिठोली शुरू हो जाती थी। कहार भी इतने माहिर होते थे कि अपने चुटकिलें एवं मजाकों से दुलहन के सारे गमों को पलभर में धो देते थे और उनके मन मे मधुर जीवन की ऐसी कल्पना भर देते थे कि मन कोमल कलपनाओं से भर उठता था। दिल में पिया के घर की ऐसी सुखद तस्वीर उभर आती थी कि दुल्हन बाबुल के घर से विछुड़न को थोड़ी देर के लिए भूल ही जाती थी और जब अपने नये घर में प्रवेश करती थी तो झिझक तो रहती थी लेकिन उसके साथ सुखद कल्पना व अदृश्य उत्साह भी मिल जाते थे। पर अब ये बात सिर्फ याद करने की रह गयी। दुल्हन की रूलाई बंद भी नही हो पाती कि कार उसे लाकर ससुराल पहुंचा देती है। कार में घर-परिवार के लोग भी बैठे होते है जिसके कारण दुल्हन का सारा रास्ता गुम-शुम में ही कट जाता है।
🔴 डोली की कहानी बुजुर्गों की जुबानी
विलुप्त हो चुके शाही सवारी डोली की रिवाज के संबन्ध में विशुनपुरा ब्लाक के मंसाछापर गांव की निवासी सत्तर वर्षीय तेतरी देवी एवं पार्वती देवी कहती है कि ‘बाबू उ जमाना दूसर रहल ह जब डोली के रस्म रहल है। हमनी के डोली में ही अपने ससुराल आईल बानी जा। आज के लोग नया फैशन के होगईल बा, उ लोग का बूझियन डोली महत्व! कुशीनगर जनपद के पडरौना विकास खण्ड अन्तगर्त ग्राम सभा तंगल नाहर छपरा एवं कुरमौल गांव की निवासी जुगनी देवी व कालिन्दी देवी कहती है कि आज भले ही ‘डोली’ के कौने महत्व नईखे लेकिन आज से बीच- तीस साल पहले शादी-ब्याह में डोली के ही रस्म रहे! जब दूल्हा डोली में बैठकर ब्याह रचावे जात रहल ह त अइसन लागत रहल है गांव से कौनो शहजादा के बरात निकल बा! उधर से जब दुल्हन डोली में बैठकर आवत रहल ह त कौनो शहजादी से कम नाही लागत रहल ह! अब त सब कुछ नये जमाने के भेट चढ़ गईल।
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