गुम हो गई, कसेरा टोली के बर्तन निर्माण की खनखनाहट - Yugandhar Times

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Wednesday, October 23, 2019

गुम हो गई, कसेरा टोली के बर्तन निर्माण की खनखनाहट

कहा गये वो दिन

* संजय चाणक्य
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" न जाने कितने ही गरीब नई तकनीक की भेंट चढ़ जाते हैं,
पूँजीपति नई मशीनों को अपनाकर मज़दूरों के पेट पर लात मारते हैं।। " 

एक समय था जब पौ फटते ही कुशीनगर जनपद के पडरौना नगर मे संगीत की दो धीरायें एक साथ फूटती थी। एक थी भोर मे पक्षियों के मधुर कलरव की और दूसरी थी उसी के समानान्तर कसेरा टोली के सैकड़ों घरो मे बर्तनो के निर्माण से निकलने वाली खनखनाहट की। किन्तु अफसोस आधुनिकता की दौर मे हालात उस मुकाम पर है जहाँ पक्षियों का मधुर कलरव तो यथावत है, मगर नई तकनीक के शोर ने यहां के पारम्परिक बर्तनो के निर्माण से निकलने वाली खन-खन की पुरसकून आवाज को लगभग बन्द कर दिया है। एक उद्योग के बन्द हो जाने और उससे जुडी एक कला के लुप्त होने से बदहाल यहा के कारिगर व कारोबारी बेकारी और भूखमरी के कगार पर पहुच कराह रहे है।
    बेशक। एक वह दौर था जब जिला मुख्यालय पडरौना के कसेरा टोली मुहल्ले मे पीतल, ताबा और फूल से बनने वाली बर्तनो की पूर्वाचंल ही नही वरन प्रदेश व देश मे धाक थी।
इस उद्योग से सैकड़ों परिवार के हजारों लोग जुडे थे। जनपद के  कारिगर, मजदूर और व्यवसायियों के हजारों की तदात इस व्यवसाय से होने वाले लाभ के बल पर अपनी जिन्दगी का गाडी बडी आसानी से खिचते थे। ऐसी चर्चा है कि यहां के बनने वाले बर्तन उम्दा और उत्तम श्रेणी के होते थे। यही वजह है कि यहा के बर्तनो की डिमांड जहा कोलकाता, हरियाणा व राजस्थान मे की जाती थी वही देवरिया, महराजगंज, गोरखपुर, बस्ती सहित समस्त पूर्वी उ0प्र0 व बिहार के बडे क्षेत्र के बर्तन व्यवसाय पर कब्जा किये हुए थे। उस समय पडरौना मे सिर्फ पीतल, ताबा और फूल के बर्तन व्यवसाय से सलाना करोडो के कारोबार हुआ करता था। हजारो लोगो का इससे रोजगार जुडा हुआ था लेकिन अफसोस आज हालात बदल गये है। पडरौना नगर की कसेरा टोली मे अब बर्तन उद्योग गुजरे जमाने का इतिहास बन गया है। कल तक जहाँ सैकडो घरो मे बर्तन निर्माण होते थे आज तादात नगण्य के बराबर है। कसेरा टोली मुहल्ले मे फूल और पीतल के बर्तन निर्माण बंद क्या हुआ हजारो कारीगरों के भाग्य का दरवाज़ा ही बंद हो गया। नतीजतन हुनरमंदो के सामने दो वक्त की रोटी का संकट खडा हो गया है। इस कला और व्यवसाय से जुडे लोग कहते है कि पिछले ढाई दशक से पारम्परिक बर्तनो के बजाय आधुनिक बर्तनो के प्रति बढता लगाव और सरकारी उदासीनता इस उद्योग के बर्बादी का सबसे प्रमुख कारण है। इतना ही नही स्टील और चीनी मिट्टी के बर्तनों के बढते शौक ने इस व्यवसाय को पूर्णतः खत्म कर दिया। शादी-ब्याह की रस्म अदायगी को छोड दिया जाए तो फूल और पीतल के बर्तन अब घरो से ओझल हो गये। कसेरा टोली मुहल्ले मे बंद पडी तीनों रोलिंग कारखाने अपनी दुर्दशा को बयां कर रही है। सरकारी सहायता के अभाव मे कुशल कारीगरों की आस भी अब टूट चुकी है इस उद्योग से जुडे कारोबारी भी अब नाम मात्र के रह गये है, जो इसकी पहचान बनाये रखने व पुरानी चमक वापस पाने के लिये जूझ रहे है। किन्तु विडम्बना यह है कि जिले के राजनीतिज्ञों के लिए बिलुप्त होने की कगार पर खडी यहां का बर्तन उद्योग कभी कोई मुद्दा नही रहा।
कहना न होगा कि फूल, पीतल व ताबे के बर्तन सिर्फ मजबूत ही नही अन्य दृष्टिकोण से भी लाभदायक है। कहना लाजमी है कि आधुनिक बर्तनों के मुकाबले के लिए सरकार को पारम्परिक बर्तन निमार्ण कला को बचाने के लिए प्रयास करना चाहिए था जो उसने नही किया। न तो कभी इस कला के करीगरो को प्रशिक्षित करने की कोशिश की गयी और न ही व्यवसाय को जिन्दा रखने के लिए अनुदान दिया गया।
 " गवा दिए ना जाने कितनो ने, अपने हुनर को जमाने की तरकीबों मे।
यहाँ आदमी ही उलझा रहे है, आदमी को नई-नई तकनीकों मे।। " 

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