संजय चाणक्य
‘‘ यादे अब यादे हो चली है !
जमाना तुम्हे भुलता जा रहा है!!’’
जब चैदह के उम्र में लोग अक्सर बचकाना हरकत करते है। उस समय घ्यानचंद ने अपने आत्म विश्वास का लोहा मनवाया था। वाक्या वर्ष 1919 का है जब ध्यानचंद्र चैदह के दहलीज पर पहुंचे थे। वह अपने पिता के साथ आर्मी में हो रहे हाकी मैच देखने गए थे। उस समय एक टीम दो गोल से पीछे थी। चैदह साल के इस युवक ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने पिता से कहा-अगर मुझे मौका मिल जाए तो मै पिछड़ रही टीम को जीता सकता हू। पिता ने अपने बेटे की बात को तो अनसुना कर दिया किन्तु वही पास में बैठे एक आर्मी के अधिकारी को ध्यानचंद की अद्भूत आत्मविश्वास ने इस कदर प्रभावित कर दिया कि उस अधिकारी ने ध्यानचंद को मैदान में स्टीक लेकर उतरने की अनुमति दे डाली। उसके बाद क्या, ध्यानचंद ने मैदान में उतरते ही एक के बाद एक चार गोल ठोककर हारते हुए टीम के माथे पर न सिर्फ जीत का सेहरा बांध दिया बल्कि अपने बुलन्द हौसले को भी दुनिया के सामने रख दिया। इतना ही नही दुनिया जिसके आगे सिर झुकाती थी, हिन्दुस्तान के इस लाल ने हिन्द के आगे उसका सिर झुका दिया। ध्यानचंद के बुलन्द हौसले और दृढ़ आत्मविश्वास के आगे तानाशाह हिटलर को भी नतमस्तक होना पड़ा था। अफसोस हाकी के जादुगर कहे जाने वाले मेजर का हाकी अपने देश का राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद भी उपेक्षित है। यह दुर्भाग्य नही तो और क्या है कि जिस खेल को ध्यानचंद ने अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाई वही राष्ट्रीय खेल अपने देश में ही दम तोड़ रही है। ऐसे में अनयास ही मेरे मौन ओढ़ों से दो शब्द फूट पड़ते है......!
‘ मेजर !’ ‘‘ तू ही मुसाफिर है तू ही मंजिल भी !
तू चला क्या गया कि तुझे अपनो ने ही भूला दिया !!’’
मेजर ध्यानचंद ढाई अक्षर का सिर्फ नाम नही बल्कि भारत की पहचान है। अफसोस जिस देश के लिए उन्होने जर्मनी में जनरल बनने का न्यौता ठुकरा दिया आज उनके अपने ही उनको भुला दिए है। हम इतिहास के पन्नें को पलटकर खुश होते है, इतराते रहते है। लेकिन खुद कभी इतिहास लिखने की जहमत नही उठाते है। हमे खैरात में शाबाशी लेने और वाहवही लुटने की आदत सी हो गई। अगर खुद इतिहास नही लिख सकते है तो कम से कम इतिहास बनाने वाले को तो कभी मत भूलिए। जगजाहिर है कि 29 अगस्त 1905 को जन्मे हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद ने सीमित संसाधनों में अपनी प्रतिभा को साबित करने और देश का मान बढ़ाने लिए जो कुछ भी बन पड़ा उन्होने किया। वह एक खिलाड़ी से दिग्गज खिलाड़ी बने उसके बाद महान खिलाड़ी बने फिर वह इतना उपर उठ गए कि सारी दुनिया उनके आगें बौना दिखने लगी। परन्तु आज भी हाकी का यह जादूगर अपने वास्तविक अस्तित्व की तलाश में है। यह दुर्भाग्य ही तो है कि उनके जन्मदिवस को देश का राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किए जाने के बावजूद वह आज भी उपेक्षित है। बेशक मेजर ध्यानचंद के जन्मदिन यानि खेलदिवस के दिन देश हर राज्यों में गाव-जवार से लगायत नगर और महानगरों के खेल के मैदान में विभिन्न खेलो का आयोजन कर ध्यानचन्द के जन्मदिवस को पूरे उल्लास के साथ मनाये जाने की परम्परा रखी गई थी। इसी दिन खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वालो को राष्ट्रीय पुरस्कार अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। किन्तु अफसोस दद्दा का उल्लास के साथ जन्मदिवस मनाने की बात तो दूर कही किसी मण्डल में कोई खेल का आयोजन भी नही किया गया। और कही किया भी गया तो मात्र औपचारिता पूरी कर अपने दायित्वों की इतिश्री कर ली गई। विडम्बना यह है कि जिलाप्रशासन और विभिन्न खेलों से जुडे खिलाडियों को भी मेजर का जन्मदिवस मनाने का फुर्सत नही मिला। शर्म की बात है कि जिस भारत के लिए मेजर ध्यानचंद ने हिटलर का जर्मनी में जनरल बनने का न्यौता सिर्फ इस लिए ठुकरा दिए क्यों कि वह अपने देश का मान और सम्मान बढ़ना चाहते थे। लेकिन यही भारत उनके कृतियों को भूलाकर उन्हे ठुकरा दिया। हिन्दुस्तान को ढेर सारी उपलब्धिया, अनगिनत यादगार लम्हे दिलाने वाले मेजर के हम हिन्दवासी ऋणि है। वह क्षण जिसे याद कर या लोगों से सुनकर हम गर्व महसूस कर फूले नही समाते वह ताजिन्दगी मेजर ध्यानचंद का ऋणि रहेगा। इसे सिर्फ पद्मभूषण पुरस्कार और उनके जन्मदिवस को खेल दिवस के रूप में मनाकर भारत सरकार और हम हिन्दवासी उनके कर्ज की अदायगी नही कर सकते है! भारत सरकार को यह नही भूलना चाहिए कि दद्दा के नाम से ख्याति प्राप्त मेजर ध्यानचंद ने ही अन्तराष्ट्रीय पटल पर भारत को अपनी स्टीक के जरिये पहचान दिलाई है। अगर भारत सरकार दादा के प्रति थोडी भी आस्थावान है और उनके लिए कुछ करना ही चाहती है तो सर्व प्रथम ध्यानचंद को देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न और भारत रत्न से नवाज कर उनका मान बढा़ये। उसके बाद राष्ट्रीय खेल के रूप में दर्जा प्राप्त हाकी को अन्य खेलों के अपेक्षा विशेष महत्व दे। क्योंकि यह सब दद्दा के कृतियों से बढ़कर नही है उन्होने जो इस देश को दिया है उसके अनुपात में यह कुछ नही है। हां इतना जरूर है कि अगर भारत सरकार यह सब करती है तो राष्ट्र की ओर से मेजर ध्यानचंद को सच्ची श्रद्धाजंली होगी। वैसे तो तिगड़म भिड़ाने वाले लोग यह कहते नही थकेगें कि मरणोंपरांत किसी खिलाड़ी को खेल रत्न कैसे दिया जा सकता है? मै उन महानभूतियों से कहना चाहुगा जब किसी सैनिक को मरणोंपरांत परंमबीर चक्र से सम्मानित किया जा सकता है तो फिर किसी खिलाड़ी को ‘खेल रत्न’ से क्यों नही? किक्रेट के महान खिलाड़ी सचिन तेदुलकर भारत रत्न दिया गया लेकिन उससे पहले देश के सर्वोच्च नागरिक का सम्मान दद्दा को मिलनी चाहिए थी। यहा भी राजनीति के खिलाडियों ने कूटनीति की चाल चलकर दद्दा को उपेक्षित कर दिया। माना कि सचिन तेदुलकर किक्रेट के महान खिलाडी है लेकिन ध्यानचन्द से बडी उनकी कृतिया नही है। सचिन को भारत रत्न मिला इसका हमे विरोध नही है लेकिन भारत रत्न पाने वाले खिलाडी में पहला नाम दद्दा का नही है हमे दुख है और यह दुख हर हिन्दवासियों को होना चाहिए जो दिल के किसी कोने में तीर की तरह चुभती रहेगी। हिन्द के बाशिन्दो सचमुच आप दद्दा के सम्मान में कुछ करने की जब्जा रखते है उनको सच्ची श्रद्धाजंली अर्पित करना चाहते है तो मेजर घ्यानचंद को हमेशा अपने अन्र्तआत्मा में जिन्दा रखिये उन्हे कभी मरने न दीजिए, उनकी यादे कभी मिटने न दे, वह जिस सम्मान के हकदार थे उस सम्मान को दिलाने और उनके खेल को सभी खेलों से अधिक महत्व दिलाने के लिए आवाज बुलन्द कीजिए। यकीन मानिए मेजर ध्यानचंद जैसे लोग युगो-युगान्तर में सिर्फ एक बार जन्म लेते है। यह हिन्दुस्तान का सौभाग्य है कि मेजर ध्यानचंद उत्तर प्रदेश के गंगा,जमुना सरस्वती के पावन धरती पर जन्म लिए!
‘‘ अब तुमसे रूखसत होता हू , ,जाओं सम्भालों साजे-गजल!
नए तराने छेड़ों, मेरे नगमो को नींद आती है!!’’
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